‘आपातकाल के 50 साल’ पूरे होने के मौके पर आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस पार्टी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर जमकर हमला बोला। उन्होंने आपातकाल को भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला अध्याय बताया और कहा कि उस दौर में देश की जनता की आवाज को कुचल दिया गया था।
कार्यक्रम में बोलते हुए शाह ने कहा –
“25 जून 1975 की सुबह 8 बजे, इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर देश को बताया कि राष्ट्रपति ने आपातकाल लगा दिया है।
लेकिन क्या संसद से मंजूरी ली गई? क्या कैबिनेट की मीटिंग बुलाई गई? क्या विपक्ष को भरोसे में लिया गया? कुछ भी नहीं किया गया।
सिर्फ सत्ता बचाने के लिए लोकतंत्र का गला घोंटा गया।”
“लोकतंत्र को निगल गई थी कांग्रेस”
अमित शाह ने तीखे शब्दों में कहा –
“आज जो लोग हर मंच से लोकतंत्र की बात करते हैं, उन्हें पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।
वे उस पार्टी से जुड़े हैं जिसने लोकतंत्र को ही खत्म करने का काम किया।
उस वक्त वजह बताई गई – ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’, लेकिन असल वजह थी सत्ता की रक्षा। इंदिरा गांधी ने नैतिकता को त्याग कर प्रधानमंत्री पद पर बने रहने का निर्णय लिया।”
“इंदिरा गांधी को नहीं था संसद में वोट देने का अधिकार”
शाह ने आगे कहा कि आपातकाल के समय इंदिरा गांधी खुद एक ऐसी स्थिति में थीं जहां वो न तो संसद में वोट डाल सकती थीं और न ही उनके पास कोई नैतिक अधिकार था प्रधानमंत्री बने रहने का।
“फिर भी उन्होंने सत्ता नहीं छोड़ी। ये लोकतंत्र नहीं, तानाशाही थी।”
क्या था Emergency?
भारत में 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक आपातकाल लागू रहा।
यह कदम तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने उठाया था।
इस दौरान:
- मीडिया पर सेंसरशिप लगाई गई,
- हजारों विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया,
- नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया।
इस समय को आज भी लोग भारत के लोकतंत्र पर हमले के रूप में याद करते हैं।
अमित शाह की अपील
कार्यक्रम के अंत में गृह मंत्री ने युवाओं से खासतौर पर अपील की कि वे देश के इतिहास को जानें और लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमेशा सजग और सतर्क रहें।
“आपातकाल सिर्फ एक तारीख नहीं, एक चेतावनी है – कि अगर लोकतंत्र को कमजोर किया गया, तो देश को उसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।”
अमित शाह का यह भाषण न सिर्फ कांग्रेस की आलोचना थी, बल्कि यह लोकतंत्र की मूल्यवत्ता और रक्षा की अहमियत को दोहराने का एक प्रयास भी था।
‘आपातकाल के 50 साल’ की यह चर्चा आने वाले समय में भारतीय राजनीति और इतिहास की बहसों को एक बार फिर तेज कर सकती है।